लगभग 10,000 साल पहले नवपाषाण क्रांति के चलते भोजन की सुनिश्चित उपलब्धता शुरू हुई। इससे पहले प्लीस्टोसिन युग के अंत में लगभग 12,000 साल पहले वर्तमान होलोसीन युग की शुरुआत में, अंतिम हिमयुग समाप्त हो गया, और आज के मध्य पूर्व क्षेत्र में, खाद्य संग्रहन की तुलना में खाद्य उत्पादन के लिए जलवायु अनुकूल हो गई। हालाँकि, इसके बाद स्थायी कृषि को उभरने में दो हज़ार साल लग गए, क्योंकि सामुदायिक कृषि शुरू में शिकार और संग्रहण से कम उत्पादक थी।
अनाज और दालों के जंगली किस्मों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि के साथ साथ
मिट्टी और जल संरक्षण और खाद तैयार करने में काफी श्रम की आवश्यकता होती है।
प्रारंभ में, इस कार्य को एक साथ करने
के लिए समुदाय के भीतर पर्याप्त सहमति नहीं थी। इसलिए, मनुष्यों ने कुछ समय के लिए कृषि की कोशिश करने के बाद
शिकार और संग्रहण को जारी रखना पसंद किया। समुदाय के कुछ सदस्यों द्वारा दूसरों के
श्रम पर निर्भर होने और समुदाय द्वारा कृषि से उत्पादित भोजन को बिना अधिक काम किए
उपभोग करने की समस्या भी थी। लेकिन जैसे-जैसे निजी संपत्ति का उदय हुआ और इसे सामाजिक
स्वीकार्यता हासिल हुआ, लोगों ने अपनी भूमि में सुधार के लिए निवेश करना शुरू कर
दिया, और स्थायी कृषि की
उत्पादकता में वृद्धि हुई एवं नवपाषाण क्रांति सम्पन्न हुआ।
नवपाषाण क्रांति के समय मानव आबादी लगभग 50 लाख थी, जो 1760 ईस्वी में ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति के समय तक धीरे-धीरे बढ़कर लगभग 82 करोड़ हो गई। वनों के विनाश कर नई कृषि भूमि और
चारागाह बनाकर कृषि और पशुपालन उस पूरी अवधि में फैलते रहे और बढ़ती हुई मानव आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करते रहे।
साम्राज्यवाद और
औद्योगीकरण के गठवंदन द्वारा कृषि का उद्योग में परिवर्तन
16वीं शताब्दी से दोनो अमेरिका, अफ्रीका और एशिया
का उपनिवेशीकरण शुरू हुआ। इससे खेती का विस्तार हुआ और दुनिया भर में कुछ सबसे लोकप्रिय खाद्य पदार्थों का
प्रसार हुआ - मकई, आलू, मिर्च, टमाटर, मूंगफली, एवोकैडो, पपीता, अनानास और कोको।
वनों की अधिक कटाई के बावजूद, पारिस्थितिकी को
ज्यादा नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि जंगल और
घास के मैदानों के बड़े क्षेत्र बरकरार थे और कृषि का अभ्यास ऐसा था जिसमें
अधिकांश कृषि उपज को पशु खाद के साथ मिश्रित कर खेतों में वापस कर दिया जाता था।
औद्योगिक क्रांति के साथ चीजें बदल गईं और तेजी से कृषि भी उद्योग में परिवर्तित होने लगी। यूरोपीय देशों में
और बाद में संयुक्त राज्य अमेरिका में, मशीनीकरण और भूमि एकत्रण ने किसानों और खेत मजदूरों को कृषि से बाहर कर दिया,
जिससे उन्हें विभिन्न उद्योगों में श्रमिकों के
रूप में रोजगार की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
युद्धोन्मुख कृषि
उत्पादन
इस वैज्ञानिक प्रगति के तुरंत बाद, प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। चूंकि यूरोपीय देश युद्ध में शामिल थे, अमेरिका इस दौरान यूरोप को भोजन उपलब्ध कराया।
अमेरिकी किसानों ने युद्धकालीन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अपने उत्पादन का
विस्तार किया, और गेहूं, सूअर का मांस, और अन्य मुख्य वस्तुओं के उत्पादन के लिए उन्हें सरकार
द्वारा समर्थन मूल्य दिया गया। इस प्रकार युद्ध समाप्त हो जाने के बाद, किसान आवश्यकता से अधिक भोजन का उत्पादन कर रहे
थे। फिर आई सन 1929 की बाजार की महामंदी। भोजन की मांग गिर गई, लेकिन कृषि उत्पादकता वही रही। अमेरिकी सरकार
ने समर्थन मूल्य, फसल बीमा,
सस्ते ऋण और प्रत्यक्ष अनुदान के माध्यम से
अमेरिकी किसानों का समर्थन बढ़ाया।
इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध हुआ जिसमें एक बार फिर अमेरिका यूरोप के लिए
भोजन का आपूर्तिकर्ता बन गया, और उसके द्वारा
उत्पादित अधिक खाद्य का उपयोग इसमें किया गया। हालांकि, द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, अमेरिका को फिर से अपने विशाल युद्ध-उन्मुख
उद्योग और कृषि उत्पादन को पुनर्निर्देशित करने की समस्या का सामना करना पड़ा।
समाधान में अमरीका ने बख्तरबंद वाहनों के बजाय नागरिक कारों, ट्रकों, विमानों और मालवाहक जहाजों को बनाना और विस्फोटकों के बदले उर्वरक
और कीटनाशक का उत्पादन शुरू कर दिया।
जाहिर है, इतनी सारी कारें,
विमान और जहाज, और इतना उर्वरक और कीटनाशक अकेले अमेरिकी में खप नहीं सकते
थे। इसलिए, कारों और जेट विमानों युक्त
उच्च-उड़ान वाली उपभोक्तावादी जीवन शैली और प्रसंस्कृत मांस और अनाज पर भारी
निर्भरता को पूरी दुनिया में फैला दिया गया था, और इन उत्पादों के लिए एक विश्व व्यापी बाजार बनाया गया था। मवेशी मनुष्यों की तुलना
में अधिक मात्रा में अनाज खा सकते हैं, इसलिए विकसित दुनिया के लोगों को मवेशी को मारकर उसके मांस खाने के लिए प्रोत्साहित किया गया, और गरीब देशों के लोगों (उनके मवेशियों के साथ)
को उर्वरकों और कीटनाशक के बढ़ते उपयोग के परिणामस्वरूप उत्पादित अतिरिक्त अनाज
खिलाया गया।
गाड़ियों और मवेशियों की बिक्री के आधार पर एक वैश्विक अर्थव्यवस्था स्थापित
की गई थी। एक महत्वपूर्ण कदम के तहत अमेरिका के इशारे पर दुनिया भर में सोयाबीन की
खेती को फैलाया गया जिसके तहत विकासशील देशों को सहायता दिया गया गोमांस उत्पादन के लिए सस्ता पशु
आहार और प्रसंस्कारित खाद्य के लिए सस्ता खाद्य
तेल उपलब्ध कराया जा सके। स्थानीय कृषि को नष्ट कर दिया गया और सुपरमार्केट मॉडल को
स्थापित किया गया, जिसमें विशाल
कृषि व्यवसाय निगमों द्वारा खाद्य और कृषि आदानों का उत्पादन, प्रसंस्करण और विपणन पर पूरा वैश्विक नियंत्रण
था।
कृत्रिम कृषि
प्रणाली का बोलबाला
मकई का उत्पादन इतना अधिक था कि उसे उच्च फ्रुक्टोज कॉर्न सिरप में परिवर्तित कर बड़ी मात्रा में मीठा भोजन बनाने
के लिए इस्तेमाल किया गया। लोगों को अपने आहार में शर्करा वाले खाद्य पदार्थों के
अनुपात में वृद्धि करने के लिए अधिक तेजी से विपणन का उपयोग किया गया। अमेरिकन
शुगर एसोसिएशन ने वैज्ञानिकों को पैसे दिए गलत तरीके से शोधपत्र प्रकाशित करने के
लिए कि चीनी का सेवन का हृदय रोग से कोई संबंध नहीं है। बाद में, जब जॉन युडकिन नाम के एक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने 1970 के दशक की शुरुआत में इस कपटपूर्ण शोध पर सवाल
उठाया और पुष्टि की कि चीनी का अत्यधिक सेवन से हृदय रोग बढ़ता हैं, तो चीनी उद्योग ने उसे कलंकित कर दिया।
इस प्रकार, एक कृत्रिम कृषि
प्रणाली, जो अत्यधिक उत्पादक होने के साथ साथ पर्यावरणीय और स्वास्थ्य की दृष्टि से
हानिकारक थी, दुनिया भर में स्थापित की
गई थी। बड़े पैमाने पर राज्य के अनुदानों द्वारा समर्थित, इस प्रणाली ने स्थानीय कृषि प्रणालियों को तबाह कर दिया और
दुनिया भर में खाद्य पदार्थों का व्यापार के लिए जीवाश्म ईंधन पर आधारित सस्ते
परिवहन का लाभ उठाया। 1950 और 1960 के दशक में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा गाड़ियों
और मवैशियों के उत्पादन और बिक्री पर फलते-फूलते पूंजीवादी विकास का एक सुनहरा युग
शुरू हुआ।
इसके अलावा सोवियत संघ के खिलाफ शीत युद्ध में, अमेरिका ने खाद्य उद्योग को अपनी सैन्य शक्ति के साथ एक हथियार के रूप में
इस्तेमाल किया। भारी अनुदान वाला अमेरिकी खाद्य उद्योग सोवियत यूनियन का धन की कमी
से जूझ रहा कृषि क्षेत्र की तुलना में बहुत अधिक उत्पादक था। सोवियत संघ द्वारा अमेरिका का मुकाबला करने के लिए अपनी
सैन्य शक्ति का निर्माण करने में अधिक वित्तीय निवेश किया जा रहा था जिसकी वजह से
उसकी कृषि व्यवस्था कमजोर हो गई।
प्रकृति का
पलटवार
1970 के दशक में प्रकृति द्वारा दी गई तिहरी चेतावनी के साथ मानव
विकास का संकट का दौर शुरू हो गया। सबसे पहले, जीवविज्ञानी राचेल कार्सन ने 1962 में रसायन, और विशेष रूप से
कीटनाशक, का अत्यधिक उपयोग के कारण पर्यावरण
और स्वास्थ्य के लिए खतरे की बात की। उर्वरकों और कीटनाशक के अत्यधिक उपयोग के
कारण मैक्सिको की खाड़ी में एक मृत क्षेत्र का निर्माण हो गया था।
दूसरी बात, कच्चे तेल की
कीमत में भारी वृद्धि हुई, क्योंकि बढ़ती हुई
मांग की तुलना में इसकी प्राकृतिक कमी और इसका गैर-नवीकरणीय चरित्र को उत्पादक
देशों ने समझ लिया। इसने औद्योगिक उत्पादन, विशेष रूप से मोटर चालित वाहनों के उत्पादन को बुरी तरह
प्रभावित किया, और माल के परिवहन
और आवाजाही की कीमतों में वृद्धि हुई, जो वैश्विक व्यापार और विशेष रूप से भोजन के व्यापार को नकारात्मक ढंग से
प्रभावित किया।
अंत में, जीवन के सभी पहलुओं में जीवाश्म ईंधन के उपयोग
से होने वाले कारबन डाइऑक्सिड गैस के उत्सर्जन के परिणामस्वरूप अधिक से अधिक आबोहवा
में गर्मी बढ़ी, जिससे भविष्य में जलवायु
परिवर्तन होने के गंभीर परिणाम सामने आए। समस्याएं इस बात से और जटिल हो गए थे कि
वनों की अत्यधिक कटाई हो रही थी। औद्योगीकरण और कृषि के विस्तार के लिए, वनों को – जो कि कार्बन के अवशोषण के सबसे
अच्छे घटक है - भारी रूप से नष्ट कर दिया गया था। यानि कृषि ही सभ्यता को जन्म
दिया था और अब वही इसे खत्म करने जा रही है!
प्रकृति में पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखने के लिए एक ऐसी व्यवस्था हैं जिसके
तहत विभिन्न जीवित प्रजातियां एक-दूसरे का शिकार करती हैं। मनुष्य ने इस व्यवस्था
को तोड़ दिया और परिणामस्वरूप, अन्य प्रजातियों
की तुलना में उनकी आबादी धीरे-धीरे बढ़ने लगी। फिर भी, पारंपरिक खेती द्वारा कृषि में एक व्यापक जैव विविधता को
बनाए रखा गया था। पर औद्योगिक खेती से यह प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ था,
क्योंकि वैश्विक खाद्य अर्थव्यवस्था के लिए
उपयुक्त केवल कुछ प्रकार की फसलों की उच्च उपज देने वाली किस्मों को प्रसारित करने
के कारण कृषि-जैव विविधता में भारी गिरावट आई थी। साथ ही, सन 1850 में विश्व जनसंख्या लगभग 130 करोड़ था जो अब बढ़ कर 780 करोड़ हो गई है और इस के कारण भोजन की मांग में भी अत्यधिक वृद्धि हुई
है।
औद्योगिक कृषि में इस समस्या का हल था रासायनिक
उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग के साथ अधिक से अधिक उत्पादन करना। हालाँकि,
इससे बढ़ती आबादी के लिए भोजन की जरूरतों को
पूरा किया गया पर इसके कारण पर्यावरण को दूषित किया गया, भोजन में जहर घोला गया और कई नई बीमारियों को पैदा किया गया।
रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के कारण मिट्टी में सूक्ष्म जीव नष्ट हो गए
और मिट्टी का स्वास्थ्य खराब हो गया जिसके परिणामस्वरूप उपज में कमी आई है। सबसे
महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कृत्रिम खाद्य प्रणाली को बहुराष्ट्रीय निगमों के
नियंत्रण में है, जिसका एकमात्र
उद्देश्य है अधिकतम लाभ कमाना और इसलिए आज भी विश्व भर
में 81.1 करोड़ लोग भूखे रह रहे हैं और 200 करोड़ लोग कुपोषित हैं।
सही समाधान हमेशा
से मौजूद रहा है
वर्तमान में सब से महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या रासायनिक खेती द्वारा
हमारी पृथ्वी और भोजन को इस प्रकार विषाक्त करने का कोई विकल्प है या नहीं,
जो पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ और आर्थिक रूप से
न्यायसंगत तरीके से अरबों मनुष्यों को पर्याप्त भोजन प्रदान कर सके। खेती के संबंध
में मुख्य समस्या पर्याप्त मात्र में जैविक खाद की उपलब्धता है। चूंकि इसके बिना
कृषि उत्पादकता कम हो जाएगी, इसलिए भविष्य में
खाद्य सुरक्षा के लिए जैविक खाद की उपलब्धता को सुनिश्चित करना होगा। आधुनिक जैविक खेती के जनक सर अल्बर्ट हॉवर्ड
का, जिहोंने अपने कृषि के प्रयोग इंदौर में किया था, इस संबंध में कहना है:
“ प्राकृतिक खेती की मुख्य विशेषता को कुछ शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता
है। धरती पर कभी भी पशुधन के बिना खेती करने का प्रयास नहीं करना चाहिए; हमेशा मिश्रित फसलें उगानी चाहिए; मिट्टी को सुरक्षित रखने
और कटाव को रोकने के लिए बहुत मेहनत करनी चाहिए; मिश्रित सब्जियों के कचरे को ह्यूमस में बदल दिया जाता है;
खेत का कोई भी उत्पाद वर्जय नहीं है; वृद्धि की प्रक्रियाएं और क्षय की प्रक्रियाएं
एक दूसरे को संतुलित करती हैं; उर्वरता के बड़े
भंडार को बनाए रखने के लिए पर्याप्त प्रावधान किया जाता है; वर्षा को संग्रहित करने के लिए सबसे अधिक सावधानी बरती जानी
चाहिए; पौधों और जानवरों दोनों के
मेल से कृषि संवर्धित होती है।“
यह एक श्रम-साध्य प्रक्रिया है, जिसके लिए स्थानीय तौर पर पूरे कृषक समुदाय को इस पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ और
सामाजिक-आर्थिक रूप से न्यायसंगत प्रणाली को बनाए रखने के लिए एक साथ कार्य करने
की आवश्यकता होती है। परंपरागत रूप से पूरी दुनिया में यही किया गया है, जैसा कि हावर्ड भारत में खेती के बारे में कहते
हैं:
"आज भारत के छोटे क्षेत्रों में जो हो रहा है वह कई सदियों से चले आ रहा है। पूर्वी देशों की कृषि प्रथाओं ने सर्वोच्च
परीक्षा पास कर ली है, वे उतने ही
स्थायी हैं जितने कि आदिम वन, घास के मैदान या
महासागर।”
इस प्रकार, यदि किसानों को सरकार
द्वारा रासायनिक कृषि के बजाय जैविक कृषि के लिए अनुदान दी जाती है, तो उनकी सभी भूमि पर जैविक खेती करने के लिए आवश्यक अत्यधिक श्रम की भरपाई हो
जाएगी और हमारे पास एक ऐसी प्रणाली होगी जो सामुदायिक, सामाजिक-आर्थिक रूप से न्यायसंगत, कृषि की दृष्टि से विविध और उत्पादक, और पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ है। यह जैविक कृषि कुछ ही
सालों में वर्तमान कृत्रिम कृषि
व्यवस्था से और बेहतर हो जाएगी क्योंकि कृत्रिम कृषि व्यवस्था उस क्षण ढह जाएगी जब
उसे दी जा रही भारी सब्सिडी वापस ले ली जाएगी। विश्व के 54 विकसित देशों और 12 सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने मिलकर सन 2019 में रासायनिक कृषि के लिए 53 लाख करोड़ रुपये का अनुदान प्रदान किया था। जैसा कि हावर्ड ने कहा था:
“सुधार संभव है लेकिन वे बाजार द्वारा समर्थित नहीं
हैं। भारत में किसान ज्यादातर कर्ज में डूबे हुए हैं छोटी जोत वाले है। विकास के लिए आवश्यक
पूंजी को किसानों को उधार लेना पड़ता है। बड़ी संख्या में संभावित सुधारों को इसलिए
रोक दिया गया है कि इससे प्राप्त लाभ इतना अधिक नहीं है कि लगाए गए पूंजी पर उच्च
ब्याज का भुगतान किया जा सके और किसान को लाभ भी मिल सके।“
विश्व में अधिकांश किसान छोटे भूखंडों पर खेती करते हैं जो सिंचाई के लिए
अनुपयुक्त हैं, और वे परंपरागत
रूप से लाभ के बजाय जीवन निर्वाह के लिए उत्पादन करते हैं। उन्होंने हजारों वर्षों में कृषि की एक
ऐसी प्रणाली विकसित की है जो बीज, जैविक उर्वरक,
मिट्टी की नमी और प्राकृतिक कीट प्रबंधन को
सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग करती है। विभिन्न फसलों
के चक्रीय उपयोग यह सुनिश्चित करता था कि बाढ़ और सूखे के बावजूद, फसल का कुछ हिस्सा हमेशा बच जाता था। कृषि की
विफलता के कारण अकाल नहीं पड़ता था बल्कि सामाजिक-आर्थिक कारकों से जैसे कि राजाओं
और औपनिवेशिक शासकों द्वारा अत्यधिक लगान की वसूली या व्यापारियों द्वारा सूदखोरी और
जमाखोरी। वास्तव में, अत्यधिक कराधान
और सूदखोरी ने प्राचीन काल से पूरी दुनिया में कृषि के विकास को गंभीर रूप से
बाधित किया है।
इस पारंपरिक कृषि के विकास के रास्ते में आने वाली बाधाओं को दूर करना और शोध,
व्यापक भूमि सुधार, सस्ते संस्थागत ऋण और बाजार समर्थन के साथ इसे मजबूत करना
आवश्यक है। सुपरमार्केट में बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा परोसे जाने वाले ज़हरीले खाद्य
के बजाय उपभोक्ताओं को स्थानीय रूप से उपलब्ध और स्थायी रूप से उत्पादित स्वस्थ भोजन
का उपभोग करने की आवश्यकता के बारे में शिक्षित किया जाना जरूरी है।
अध्ययनों से पता चला है कि भारत की स्वदेशी कृषि पद्धतियां, जिन्हें सदियों से किसानों द्वारा अभ्यास किया
गया है, उतनी ही उत्पादक हैं
जितनी कि संकरित बीज और कृत्रिम खाद पर आधारित रासायनिक कृषि। लेकिन इन्हें
प्रोत्साहित नहीं किया गया क्योंकि इसके बदले अमेरिका द्वारा तैयार किया गया औद्योगिक कृषि का एक नया प्रारूप
को भारी सरकारी अनुदान के साथ बढ़ावा दिया गया था जिसमें संकरित बीज, रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, बड़े बांध और नहरों द्वारा सिंचाई और मशीनों का इस्तेमाल शामिल था। ये सरकारी
अनुदान अंततः निगमों के पास चली गई, जो न केवल इन आदानों की आपूर्ति करती थी, बल्कि अधिकांश खेतों के मालिक भी थे और कृषि उत्पादन में
कारोबार करते थे।
इसका मतलब यह था कि कृषि उत्पादों की कीमतें कम बनी रहीं, जिसने अमेरिका में छोटे किसानों को धीरे-धीरे अपनी
जमीन बेचने और बेरोजगार होने के लिए मजबूर किया, और जबरदस्त विनाश को जन्म दिया। इसके अलावा, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विस्फोटकों और
बख्तरबंद वाहनों के उत्पादन के पुन: अभिविन्यास से उर्वरकों, कीटनाशकों, ट्रैक्टरों और ट्रकों के अतिरिक्त उत्पादन को बेचने के लिए
दुनिया भर में अमेरिकी कृषि प्रणाली की प्रतिकृति को फैला दिया गया।
इसलिए, अमेरिकी बहुराष्ट्रीय
निगमों द्वारा स्थापित संस्थाओं के इशारे पर, और अमेरिकी सरकार द्वारा प्रदान की गई वित्तीय सहायता की
मदद से, अमेरिकी कृषि पद्धति को
दुनिया भर के मैदानी कृषि क्षेत्रों में बढ़ावा दिया गया, और ऊपरी पहाड़ी कृषि क्षेत्रों को नजर अंदाज किया
गया।
कृषि को स्थानीय, न्यायसंगत और
टिकाऊ बनाने के लिए दुनिया भर में वर्तमान में प्रचलित विनाशकारी रासायनिक खाद्य
प्रणाली के विरोध में कई प्रयास चल रहे हैं। हालाँकि, ये प्रयोग सीमांत में हैं, क्योंकि रासायनिक कृषि पर आधारित वैश्विक खाद्य प्रणाली का
प्रबंधन, बहुराष्ट्रीय निगमों और
पूंजीवादी राज्यों के हाथों में है, जो मानवता को विनाश की ओर ले जा रहे हैं! यह निश्चित रूप से अस्वीकार्य है, और राज्यों को स्थायी कृषि को बढ़ावा देने के लिए दुनिया भर
में दबाव लाया जाना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2021-2030 को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली का दशक घोषित किया है, यह मानते हुए कि यह एकमात्र तरीका है जिससे कि वर्तमान
पारिस्थितिक संकट को टाला जा सकता है। पारिस्थितिकी
तंत्र की बहाली और टिकाऊ कृषि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इन्हें साथ-साथ चलना
चाहिए। इसलिए सभी को टिकाऊ कृषि की ओर इस महत्वपूर्ण बदलाव लाने के लिए लामबंद होकर
संघर्ष करना पड़ेगा क्योंकि इसीसे मानव जाती बच पाएगा।
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