यह डॉ वंदना शिवा द्वारा लिखी गई मूल अंग्रेजी आलेख का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद है।
"जैव
विविधता" हमारी संप्रभु संपदा है न कि "संसाधन" जिसे वैश्विक
निगमों द्वारा चुराया जाना है। यूरोपीय देशों ने उपनिवेशवाद के माध्यम से हमारे धन को लूटा था। आज यह जैव-साम्राज्यवाद
के रूप में नव-उपनिवेशवाद के माध्यम से जारी है, जो हमारी जैव विविधता, बीज और भोजन पर नियंत्रण और स्वामित्व कर रहा है। हमारी जैव
विविधता और पारंपरिक ज्ञान संपदा को निकाला और पेटेंट कराया जाता है और जंक फूड,
अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड और आनुवंशिक रूप से
संशोधित जीवों (जीएमओ) को हम पर थोप दिया जाता है, जो तरह तरह की बीमारियों के साथ हमारे स्वास्थ्य को नष्ट कर
देता है। वही व्यापारिक निगम एक तरफ हमारी जैव विविधता और ज्ञान को लूटते हैं और
पेटेंट कराते हैं और दूसरी तरफ रसायनों और जीएमओ फसलों के निर्माण करते हैं जो उनके द्वारा
निर्मित रसायनों के प्रतिरोधी हैं। वे बड़ी दवा निर्माता कंपनियां भी चलाते हैं जो
महंगी पेटेंट की हुई दवा बेचती हैं।
वे अब हमारे आयुर्वेदिक पौधों, उनके चिकित्सा
गुणों और उपचार के हमारे सदियों के ज्ञान का पेटेंट कराना चाहेंगे।
1992 में जैविक विविधता पर एक अनुबंध (https://www.cbd.int/doc/legal/cbd-en.pdf)
पर ब्राजील के रियो – डी – जनेरों शहर में
पृथ्वी शिखर सम्मेलन में हस्ताक्षर किए गए थे ताकि पेटेंटिंग के माध्यम से स्वदेशी
जैव विविधता और ज्ञान की जैव चोरी को रोककर जैव विविधता की रक्षा की जा सके और
जीएमओ बीजों के प्रसार विनियमित हो। यह अनुबंध समुदायों और देशों के जैव विविधता
और ज्ञान के संप्रभु अधिकारों को मान्यता देता है। इन संप्रभु अधिकारों के आधार पर,
समुदाय और देश अपनी जैव विविधता और ज्ञान तक
पहुंच को विनियमित कर सकते हैं।
जैव विविधता अधिनियम 2002 की
प्रस्तावना (https://www.indiacode.nic.in/ bitstream/123456789/2046/1/200318.pdf) में स्पष्ट रूप से कहा
गया है कि यह अधिनियम जैविक विविधता के संरक्षण के लिए पारित किया गया है ताकि इसके
घटक के सतत उपयोग और जैविक संसाधनों और ज्ञान के उपयोग से होने वाले लाभों का उचित
और न्यायसंगत बंटवारा हो सके।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक अंतरराष्ट्रीय संधि पारित किया है जैव विविधता
तक पहुंच और उससे प्राप्त लाभ के साझाकरण पर जिसे नागोया
प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है और इसमें निष्पक्ष और न्यायसंगत रूप से जैव विविधता के लाभ साझा
करने के लिए जो प्रावधान किए गए है वह भारतीय जैव विविधता अधिनियम पर आधारित है (https://www.cbd.int/abs/doc/protocol/nagoya-protocol-en.pdf)।
यह देखते हुए कि संरक्षण स्थानीय समुदायों पर निर्भर है, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उनके साथ
न्यायपूर्ण व्यवहार हो। चूंकि जैव
विविधता संप्रभु राष्ट्रीय धन है और इस पर वैश्विक निगमों की खुली पहुँच नहीं होनी
चाहिए, एक संप्रभु देश को यह तय
करना होगा कि इसकी संरक्षण रणनीति क्या होनी चाहिए, इसका टिकाऊ उपयोग क्या है, इससे क्या लाभ लिया जा सकता है और किसके यह लाभ मिलना चाहिए। इसके लिए उचित
और न्यायसंगत सिद्धांतों के आधार पर जैव विविधता के लाभ साझा करने के सही कानून
बनाना होगा।
पिछले तीन दशकों में बड़ी दवा
निर्माता कंपनियों और बड़ी बीज कंपनियों सहित समृद्ध विकसित देशों के रासायनिक
उद्योग हमारी समृद्ध जैव विविधता और इससे जुड़े स्वदेशी ज्ञान तक पहुंच प्राप्त
करने का प्रयास कर रहे हैं। उनके पास न तो जैव विविधता है और न ही इससे जुड़ा
ज्ञान। गरीब विकासशील देश जैव विविधता और जैव विविधता आधारित ज्ञान और उत्पादन
प्रणालियों में समृद्ध हैं। पहले भी हमारे संसाधनों के निष्कर्षण के माध्यम से ही उपनिवेशवादी
देश समृद्ध हो गए। अंग्रेजों ने उनके दो सदियों तक चला साम्राज्यवादी राज के दौरान
भारत से 34000 खरब रुपये निकाले (
https://economictimes.indiatimes.com/news/politics-and-nation/british-looted-45-trillion-from-india-in-todays-value-jaishankar/articleshow/71426353.cms?from=mdr)
।
कृषि, बीज, खाद्य और चिकित्सा को नियंत्रित करने वाले
विशाल वैश्विक निगम पिछले तीन दशकों से हमारे नियमों को कमजोर करने की कोशिश कर
रहे हैं पर अब तक सफल नहीं हुए हैं। वे अब हमारे कानूनों और विनियमों को कमजोर
करने का एक और प्रयास कर रहे हैं। वे बीज और चिकित्सा पर पेटेंट एकाधिकार बनाने के
लिए स्थानीय समुदायों के सामूहिक अधिकारों को कमजोर करने के उद्देश्य से अब जैव
विविधता अधिनियम को बदल रहे हैं (http://164.100.47.4/BillsTexts/LSBillTexts/Asintroduced/158_2021_LS_Eng.pdf)
ये संशोधन वैश्विक निगमों द्वारा हमारी जैव विविधता और ज्ञान के विरासत पर
पेटेंट लेने के लिए किए गए हैं। यह संविधान और जैव विविधता अधिनियम में निहित
हमारे स्वास्थ्य पर हमारी संप्रभुता का उल्लंघन है। इन संशोधनों ने ना केवल वाणिज्यिक
शोषण को जैव विविधता संरक्षण से ऊपर रखा है बल्कि वैश्विक वाणिज्यिक हितों को हमारे किसानों और जनजातियों, राज्य विधानसभाओं और संसद के अधिकारों से ऊपर
रखा है। यह संशोधनों के कारण हमारा राष्ट्रीय हित वैश्विक वाणिज्यिक हितों के अधीन
आ
जाएंगे जो पेटेंट और बौद्धिक
संपदा अधिकारों के माध्यम से हमारी जैव विविधता और इसके लाभों का दोहन करना चाहते
हैं।
प्रस्तावित तीन
सबसे खतरनाक संशोधन हैं -
1. जैव विविधता को पुनर्परिभाषित करना: जैव विविधता जीवन का आधार है, "वसुधैव कुटुम्बकम" की सिद्धांत वाली हमारी
पारिस्थितिक सभ्यता की नींव में यह तथ्य है - पृथ्वी विविध जीवित प्राणियों का एक
परिवार है। यह संशोधन जैव विविधता को "संसाधन" और एक वित्तीय
"संपत्ति" के रूप में परिभाषित कर वैश्विक अनैतिक प्रतिमान को यहाँ लागू
करने की कोशिश करके हमारी सभ्यतागत नैतिकता को कमजोर कर रहा है। मूल अधिनियम के
अध्याय दो के शीर्षक में
"विविधता" के लिए "संसाधन" शब्द को प्रतिस्थापित करना हमारे
स्वदेशी दृष्टिकोण का उल्लंघन है और पारिस्थितिक विज्ञान का भी उल्लंघन है जो यह
मानता है कि जैव विविधता जीवन के जाल को बुनती है और केवल एक संसाधन नहीं है।
2. जैवविविधता की लूट: हमारे किसानों ने अपनी प्रतिभा से जो बीज विविधता कायम किया
है उसका अवमूल्यन करके हमारे बीजों की जैव चोरी का रास्ता प्रशस्त कर दिया जाएगा।
अब यह व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त है कि किसान सदियों से कई फसलों के किस्मों
के प्रजनक रहे हैं। हमारे किसानों ने केवल एक जंगली घास, ओरिज़ा सैटिवा, लेकर चावल की 200,000 किस्में तैयार की हैं। धारा 2 के उपखंड (g) में परिभाषाओं में प्रस्तावित संशोधन हमें औपनिवेशिक
शब्दावली में वापस ले जाता है जो हमारे किसानों के योगदान को मिटा देता है जिन्होंने
हमें कृषि जैव विविधता का सौगात दिया है जो ना केवल हमें स्थायी आजीविका प्रदान
करता है बल्कि हमारे बीज और खाद्य संप्रभुता का आधार है। किसान द्वारा विकसित
किस्में उनकी अपनी हैं और हम उन्हें "landrace" नहीं कहते हैं। वे जमीन से नहीं निकले है बल्कि वे किसानों द्वारा
विकसित और सँवारे गए हैं। अधिनियम में नए सिरे से संयोजित उपखंडों (ga) और (gc) के शब्दावली
औपनिवेशिक है जो वैश्विक बीज निगमों को उन किस्मों की चोरी करने की अनुमति देते
हैं जो किसानों ने पैदा की हैं और उन लक्षणों पर दावा करने के लिए रास्ता प्रशस्त
करते हैं जो किसानों ने आविष्कार किए हैं। इस तरह हमारी बासमती और गेहूं के पेटेंट
का प्रयास किया गया और हमने इसे चुनौती दी। यह संशोधन जैव विविधता की लूट को रोकने
के बजाय उसे और आसान बना रहा है -
(ga) "लोक किस्म" का अर्थ है पौधों की
एक खेती की गई किस्म जिसे किसानों के बीच अनौपचारिक रूप से विकसित, उगाया और आदान-प्रदान किया गया है;
(gc) "landrace" का अर्थ है आदिम प्रजातियाँ जो प्राचीन किसानों और उनके
उत्तराधिकारियों द्वारा उगाई गई थी;
3. समुदाय और राज्य के अधिकारों का हनन: समुदायों और राज्य जैव विविधता
बोर्डों की सहमति को दरकिनार कर दिया गया है और जैव विविधता की लूट को सुविधाजनक
बनाने के लिए सारी शक्ति एक केंद्रीकृत प्राधिकरण के हाथों में डाल दी गई है। यहां
तक कि संसद की विधायी शक्तियों का भी ह्रास किया गया है। हमारी जैव विविधता और
हमारे लोगों का ज्ञान के संरक्षण हेतु भारत की सबसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संपदा से संबंधित नियम और कानून केवल संसद द्वारा बनाया
जाना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय अनुबंध,
नागोया प्रोटोकॉल, हमारा
राष्ट्रीय जैव विविधता अधिनियम, स्थानीय जैव विविधता समुदायों और राज्य जैव
विविधता बोर्डों का उद्देश्य है जैव विविधता को संरक्षित करना। परंतु मूल अधिनियम
का धारा 18 का प्रस्तावित संशोधन एक केंद्रीकृत एजेंसी, राष्ट्रीय जैव विविधता
प्राधिकरण, को संसद को दरकिनार कर इस महत्वपूर्ण विषय पर नियम बनाने की शक्ति देता
है -
(1) "केंद्र सरकार के अनुमोदन से, राष्ट्रीय जैव विविधता
प्राधिकरण, जैविक संसाधनों और उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान तक पहुंच प्रदान करने और
लाभों के उचित और समान बंटवारे के निर्धारण के लिए विनियम बनाएगा।"
अतीत में भारत में जैव विविधता की चोरी के असंख्य प्रयास
हुए हैं जो नीचे सूचीबद्ध है और जैव विविधता अधिनियम 2002 के उपर्युक्त प्रस्तावित
संशोधनों से भविष्य में इस तरह के और प्रयास करने में वैश्विक निगमों के मदद
मिलेगी। इसलिए उन्हें तुरंत वापस ले लिया जाना चाहिए।
अतीत में हुए भारत के जैव विविधता चोरी के वैश्विक निगमों
के प्रयासों की सूची।
1. नीम का पेटेंट: नीम के कवकनाशी गुणों का पेटेंट जैव विविधता और स्वदेशी ज्ञान की चोरी का एक स्पष्ट उदाहरण
था। लेकिन यूरोपीय पेटेंट कार्यालय (ईपीओ) ने 2005 में संयुक्त राज्य अमेरिका के
कृषि विभाग और बहुराष्ट्रीय निगम डब्ल्यूआर ग्रेस को नीम के बीज की सहायता से
पौधों पर कवक को नियंत्रित करने की एक विधि के लिए दिए गए पेटेंट को रद्द कर दिया।
तीन समूहों द्वारा इसे चुनौती दी गई थी: यूरोपीय संसद की ग्रीन पार्टी, रिसर्च फाउंडेशन फॉर साइंस,
टेक्नोलॉजी एंड इकोलॉजी
की डॉ. वंदना शिवा और इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर। उन्होंने इस आधार
पर पेटेंट को अमान्य करने की मांग की कि नीम के कवकनाशी गुण और इसके उपयोग को भारत
में 2000 से अधिक वर्षों से मालूम है।
2. बासमती की बायोपाइरेसी: टेक्सास की एक कंपनी, राइस टेक ने संयुक्त
राज्य अमेरिका पेटेंट और ट्रेडमार्क कार्यालय (यूएसपीटीओ) में बासमती चावल पर एक
सामान्य पेटेंट दायर किया था जिसमें शामिल थे चावल के रोपण, कटाई एकत्र करना और यहां तक कि खाना बनाना भी। हालाँकि राइस टेक ने बासमती
चावल का आविष्कार करने का दावा किया था, फिर भी उन्होंने इस तथ्य
को स्वीकार किया कि यह भारत के कई चावलों से प्राप्त किया गया है। विरोध और भारत
के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद, अमेरिकी पेटेंट और ट्रेडमार्क कार्यालय ने 2001
में बासमती पेटेंट के अधिकांश वर्गों को रद्द कर दिया।
3. चावल की बायोपाइरेसी: बायोटेक की दिग्गज कंपनी सिनजेंटा ने भारत के
छत्तीसगढ़ से धान की 22,972 किस्मों, भारत की चावल विविधता के
कीमती संग्रह को हथियाने की कोशिश की। इसने डॉ. रिछारिया के चावल विविधता के
अमूल्य संग्रह तक पहुंच के लिए इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय (आईजीएयू) के साथ
एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। जन संगठनों, किसान संघों, नागरिक स्वतंत्रता समूहों, महिला समूहों, छात्रों के समूहों और
सिनजेंटा और आईजीएयू के खिलाफ जैव विविधता संरक्षण आंदोलनों के विरोध के परिणाम स्वरूप
सिनजेंटा ने 2004 में इस सौदे को रद्द कर दिया।
4. हल्दी की जैव चोरी: हल्दी का
सक्रिय तत्व करक्यूमिन है और इसका उपयोग हजारों वर्षों से भोजन के रूप में और इसके रोगनिरोधी व चिकित्सीय मूल्य के लिए दवा के रूप में
किया जाता रहा है। इसका उपयोग हमारे देश की खाद्य और स्वास्थ्य संस्कृति का एक
अभिन्न अंग रहा है। इसके बावजूद अमेरिका के मिसिसिपी विश्वविद्यालय, जैक्सन, को घाव भरने के लिए हल्दी पाउडर के उपयोग के
लिए यूएस पेटेंट कार्यालय से यूएस पेटेंट मिल गया था। काउंसिल फॉर साइंटिफिक एंड
इंडस्ट्रियल रिसर्च ने अमेरिकी पेटेंट कार्यालय के फैसले को चुनौती दी और 1997 में
पेटेंट रद्द कर दिया गया। दुर्भाग्य से, हल्दी के उपयोग के लिए कई
अन्य पेटेंट आज भी जारी है।
5. भारतीय गेहूं की मोनसेंटो की जैव चोरी: सबसे बड़े बीज निगम मोनसेंटो को अमरीकी
पेटेंट ऑफिस द्वारा गेहूं पर एक पेटेंट सौंपा गया था। ग्रीनपीस और भारत कृषक समाज
के साथ रिसर्च फाउंडेशन फॉर साइंस,
टेक्नोलॉजी एंड इकोलॉजी
ने इसके विरुद्ध एक याचिका दायर की,
जिसमें मोनसेंटो को दिए
गए पेटेंट अधिकारों को चुनौती दी गई, जिसके कारण 2004 में
पेटेंट रद्द कर दिया गया।
6. गेहूं का आटा पर कोनाग्रा का दावा: आटा, भारत के भीतर एक मुख्य
भोजन है और वर्तमान में कोनाग्रा कॉरपोरेशन को आटा
प्रसंस्करण विधि पर पेटेंट मिला हुआ है सन 2000 से। जिस तरीके पर कोनाग्रा दावा कर रहा है, उसका इस्तेमाल पूरे दक्षिण एशिया में हजारों आटा चक्कियों द्वारा किया जाता है, और इसलिए इसे एक पेटेंट के रूप में दावा नहीं किया जा सकता है।
7. भारतीय खरबूजे की मोनसेंटो की जैव चोरी: मई 2011 में, अमेरिकी कंपनी मोनसेंटो को भारत के पारंपरिक खरबूजे पर एक यूरोपीय पेटेंट मिल
गया था। मूल रूप से भारत से उपजे ये खरबूजे कुछ विषाणुओं के प्राकृतिक प्रतिरोध
करते हैं। प्रजनन विधियों का उपयोग करते हुए, इस प्रकार के प्रतिरोध को
अन्य खरबूजे के लिए पेश किया गया था और अब इसे मोनसेंटो आविष्कार के रूप में
पेटेंट कराया है। पेटेंट का 2012 में कई संगठनों ने विरोध किया था।
8. जलवायु परिवर्तन रोधक किस्मों की मोनसेंटो की जैव चोरी: मोनसेंटो ने
"गर्मी सहनशीलता, नमक सहिष्णुता या सूखा सहिष्णुता बढ़ाने के साथ
एक ट्रांसजेनिक पौधा के उत्पादन की एक विधि" के लिए पेटेंट के लिए आवेदन किया
था। ये गुण हमारे किसानों द्वारा प्रजनन के अपने ज्ञान से विकसित किए गए हैं। 5
जुलाई, 2013 को,
भारत के बौद्धिक संपदा
अपीलीय बोर्ड की अध्यक्ष माननीय न्यायमूर्ति प्रभा श्रीदेवी और तकनीकी सदस्य
माननीय श्री डीपीएस परमार ने इन पेटेंटों की अस्वीकृति के खिलाफ मोनसेंटो की अपील
को खारिज कर दिया, जिसमें दावा किया गया था कि मोनसेंटो ने इन
गुणों का आविष्कार किया है।
मोनसेंटो जैसे निगमों ने जलवायु अनुकूल फसलों पर 1500 पेटेंट प्राप्त किए हैं।
जलवायु अस्थिरता के समय में जलवायु परिवर्तन के लक्षण तेजी से फसलों में व्याप्त
हो जाएंगे। तटीय क्षेत्रों में किसानों ने चावल की बाढ़ सहिष्णु और नमक सहिष्णु
किस्मों जैसे भुंडी, कलामबैंक, लुनबाकड़ा, संकरचिन, नलिधुलिया, रावण, सेउलापुनि, धोसरखुड़ा विकसित किया है। बाजरा जैसी फसलों को
सूखा सहन करने और पानी की कमी वाले क्षेत्रों और पानी की कमी वाले वर्षों में
खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिए विकसित किया गया है। पर इस ज्ञान को वैश्विक
निगमों द्वारा चुराया गया है। जैव विविधता की चोरी के कई अन्य उदाहरण
"ओरिजिन: द कॉरपोरेट वॉर ऑन नेचर एंड कल्चर" (https://www.amazon.in/-/hi/Vandana-Shiva-Foreword-Suresh-Prabhu/dp/8181583108) पुस्तक के पृष्ठ 281 से 299 पर दिए गए हैं।
The Subedar or Governor of Burhanpur Abdul Rahim Khankhana commissioned a Persian geologist Tabukul Arj to devise a system that would be able to harvest the rain water falling on the Satpura ranges and bring them by gravity to the town in 1615. A very ingenious plan was drawn up wherein a few large tanks were constructed to harvest the rain water and recharge it into the ground. Finally a 3.5 km long tunnel about thirty feet below the ground level, lined with marble, was constructed just uphill of the town into which the water from the t Bhandaras seeped in through the ground.
There are 103 round wells that reach this tunnel from the top at intervals and provide access to it for cleaning it of any debris and sediments that might have accumulated. The water in the tunnel flows by gravity from the first well to the last well at the end of which there is a tank from which pipelines take the water to the town below. The wells are called kundis whereas the tunnel is called Khooni Bhandara possibly because of the slightly reddish colour of the water in it.
Currently about 0.15 million litres of water per day flows out of the tunnel.
What struck me most was the ingenuity of the Mughals in devising a system that first tapped the rain water by harvesting it and then used an underground tunnel to extract it and take it by gravity to the town. This was a necessity at the time because there were no mechanised pumps to do lift water from the underground aquifer at that time. This tunnel was dug by human labour obviously as there were no machines then and this adds to the uniqueness of the system. Water harvesting is the most sustainable means of water supply. The Asirgarh fort on a high hill nearby too has excellent water harvesting systems for its water supply.